बॉलीवुड द्वारा समाज में परोसी जा रही है अश्लीलता एवं नग्नता
शिशिर शुक्ला
किसी देश की युवा पीढ़ी वहां के भविष्य की आधारशिला होती है। देश की प्रगति एवं विकास निश्चित रूप से इस बात पर निर्भर करते हैं कि वहां के युवा का बौद्धिक, वैचारिक, चारित्रिक एवं मानसिक स्तर कैसा है। युवाओं के चरित्र एवं मानसिकता पर संगति एवं चहुंओर के परिवेश के साथ-साथ मीडिया एवं सिनेमा का भी एक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। वर्तमान युग जबकि विज्ञान व तकनीकी दिनोदिन विकास के उच्च स्तरों को स्पर्श कर रहे हैं, युवा वर्ग भी कहीं न कहीं भावनाओं से दूर हटकर व्यावहारिकता की ओर विस्थापित हो गया है।
हाल ही में हिंदी सिनेमा (बॉलीवुड) की एक चर्चित फिल्म “पठान” के एक गाने “बेशर्म रंग..” ने पूरे देश में तहलका मचा कर रख दिया। गीत के बोल, अभिनेत्री की भगवा बिकनी एवं आपत्तिजनक दृश्यों को लेकर पूरे देश में बवाल मचा और एक बार पुनः “बायकॉट बॉलीवुड” की लहर दौड़ गई। फिल्म की रिलीज से पहले ही उस पर आपत्तियां व प्रश्नचिन्हों की बौछार होना निस्संदेह फिल्म को बहुचर्चित कर देता है। “बेशर्म रंग..” जैसे गाने को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म यूट्यूब के माध्यम से रिकॉर्डतोड़ लाइक्स भी मिलते हैं, हालांकि इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है क्योंकि एक कहावत भी है कि “जो दिखता है वही बिकता है”। सत्य कहा जाए तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि फिल्म के निर्माता व निर्देशक के द्वारा जानबूझकर फिल्म को चर्चा में लाने के उद्देश्य से फिल्म में इस प्रकार का अमर्यादित, अश्लीलता एवं फूहड़ता से युक्त मसाला मिलाया जाता है। यह एक अलग बात है कि इस बार विवाद का केंद्र बिंदु अभिनेत्री द्वारा पहनी गई भगवा रंग की बिकनी एवं फिल्म का गीत “बेशर्म रंग..” था। किंतु यह प्रथम बार नहीं है जब बॉलीवुड के द्वारा समाज तथा राष्ट्र को अश्लीलता एवं नग्नता परोसी गई हो। “चोली के पीछे क्या है”, “रिंग रिंग रिंगा”, “भाग डी के बोस”, “कुंडी मत खड़काओ राजा”, “लैला तेरी ले लेगी”, “हलकट जवानी”, “ओ रे प्रीतम प्यारे”, जैसे न जाने कितने गाने हैं जिनमें केवल और केवल अश्लीलता ही परिलक्षित होती है। अंतरंग दृश्यों एवं द्विअर्थी संवादों के माध्यम से फिल्मों में नग्नता का समावेश मानो एक फैशन सा बन गया है। ऐसी ऐसी फिल्में निर्मित की जा चुकी हैं जिनको परिवार एवं बड़े बुजुर्गों के साथ देखना असंभव बात है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिरकार हम किस दिशा में जा रहे हैं। हमारा वैचारिक दृष्टिकोण किस स्तर तक गिरता जा रहा है। हमारी भारतीय संस्कृति जो परंपराओं एवं मूल्यों के मोतियों से पिरोई हुई एक माला है, टूटकर क्योंकि बिखरती जा रही है। सिनेमा का समाज पर एक बड़ा प्रभाव पड़ता है। फिल्मों के माध्यम से कहीं न कहीं एक संदेश संपूर्ण राष्ट्र में प्रसारित हो जाता है। विशेषकर, यदि युवा एवं किशोर वर्ग की बात की जाए तो उनका सिनेमा के प्रति आकर्षण ठीक वैसा ही होता है जैसा कि चुंबक एवं लोहे के मध्य हुआ करता है। फिल्मों के माध्यम से युवाओं को किसी दिशा की ओर उन्मुख करना बेहद सरल है क्योंकि युवाओं की मानसिकता को बदलना एवं मोड़ना अत्यंत आसान होता है। कई दशकों पूर्व के सिनेमा एवं आज के सिनेमा में जमीन आसमान का फर्क है। आज के निर्माता व निर्देशक का एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना है। उनके द्वारा निर्मित फिल्मोत्पाद से समाज में क्या संदेश पहुंचेगा अथवा युवा पीढ़ी को उनकी फिल्म किस रास्ते पर लेकर जाएगी, इन बातों से उन्हें तनिक भी सरोकार नहीं है। यह निश्चित है कि “बेशर्म रंग..” सरीखे गाने और तमाम अनैतिकता एवं अश्लीलता से युक्त फिल्में किशोरों एवं युवाओं के मनमस्तिष्क को बड़ी मजबूती के साथ अपनी गिरफ्त में जकड़ कर उन्हें दिशाहीनता एवं पथभ्रष्टता की ओर अग्रसर कर रही हैं।
युवा, जोकि देश का भविष्य है, यदि अपने मार्ग से भटक गया तो देश में बर्बादी के कदम पड़ते तनिक भी देर न लगेगी। सिनेमा को अपनी दिशा में परिवर्तन करना होगा। अश्लीलता एवं नग्नता से परिपूर्ण फिल्मों के बजाय उसे समाज को ऐसी फिल्में देनी चाहिए जोकि भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपराओं, विशेषताओं, मूल्यों तथा गौरवशाली इतिहास पर आधारित हों, ताकि हमारा युवावर्ग अपने देश के उस गरिमापूर्ण इतिहास से परिचित हो सके, जोकि केवल पुस्तकों में संग्रहीत है। साथ ही साथ सिनेमा को विज्ञान एवं तकनीकी पर आधारित फिल्मों के माध्यम से समाज, विशेषकर युवा वर्ग को इस बात से परिचित कराना चाहिए कि आज विज्ञान एवं तकनीकी ने किस स्तर तक प्रगति कर ली है। स्वस्थ मनोरंजन का माध्यम अश्लीलता तथा द्विअर्थी संवादों से युक्त फिल्में कभी नहीं हो सकतीं। यदि विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं इतिहास जैसे विषयों पर आधारित फिल्में बनने लगीं, तो निश्चित ही युवावर्ग उस ज्ञान को व्यावहारिक रूप से अर्जित करने में सफल होगा जोकि पुस्तकों के माध्यम से अर्जित करना कहीं न कहीं कुछ हद तक मुश्किल व अरुचिकर हो सकता है। ऐसा करने से युवाओं को दिशाहीनता एवं पथभ्रष्टता के गर्त में गिरने से बचाया जा सकता है।